सनातन धर्म और उसके मूल ग्रंथ

Sampadananda Mishra
11 min readOct 1, 2023

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डॉ सम्पदानन्द मिश्र

सनातन धर्म की जो परंपरा है उसमें एक निरन्तरता है। शास्त्रों के कारण ही वह सतत गतिमान है। सनातन धर्म में शास्त्रों का महत्व इस प्रकार है कि उन्हें माध्यम बनाकर हम अपने अंतःकरण को शुद्ध और संस्कार-संपन्न करें। शास्त्र-प्रदत्त जो भी उपदेश और संदेश हैं, उन्हें अपने व्यावहारिक जीवन में अपनायें। अक्सर यह होता है कि हम ‘श्रवण-मनन-निदिध्यासन’ की आर्ष परंपरा को विस्मृत कर स्वयं को शास्त्रों के पाठ तक सीमित कर लेते हैं। शास्त्रों के श्रवण या पाठ मात्र से आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं है। भर्तृहरि कहते हैं:

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये ।
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ॥

अर्थात् शांति और ज्योति स्वरूप उस परम ब्रह्म को नमस्कार है जो दिक् और काल से अविभाजित और अनंत है, साक्षात् चित् स्वरूप है। इसको जानने का एक ही उपाय है और वह है स्वानुभूति। शास्त्रों को पढ़ने या सुनने मात्र से इसे हम नहीं जान सकते हैं। श्रीअरविन्द और सब ऋषि-मुनि भी इसी बात का समर्थन करते हैं। शास्त्र एक माध्यम हैं जिससे हमारी चेतना का विस्तार होता है, मन और बुद्धि का विस्तार होता है; हमारे विचारों में स्पष्टता आती है। ऋषियों, मुनियों, साधुओं, संतों और महात्माओं की विशेषता इसी में है कि वे शास्त्रोक्त वचन का सहारा लेकर सत्य की खोज में निकल पड़े और शास्त्रों के मनन से अपने अन्दर जो नवीन अनुभूति हुई उसको विस्तार देकर उन्होंने भी एक शास्त्र की रचना की और सनातन धर्म को गतिमान बनाया। शास्त्रोक्त सत्य अथवा उसके नवीन आयाम को एक बार उपलब्ध कर लेने के बाद वे सत्य के मार्ग से कभी हटते नहीं थे चाहे कुछ भी हो जाए। वे अपना धैर्य कभी नहीं खोते थे। भर्तृहरि के ‘नीतिशतक’ में एक सुंदर श्लोक है:

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छ्तु वा यथेष्टं।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।

अर्थात् नीतिनिपुण लोग चाहे निंदा करें अथवा प्रशंसा करें, लक्ष्मी आये या है वो भी चली जाए, मृत्यु आज आती है या युगों के बाद, परन्तु धीर पुरुष न्याय के पथ से कभी विचलित नहीं होते। यही सनातन धर्म की प्रतिष्ठा है।

इस प्रतिष्ठा के आधारभूत शास्त्रों के बारे में हम चर्चा करेंगे, परंतु महत्वपूर्ण बात यह है कि इन शास्त्रों के उपदेशों को अपने जीवन में उतारें कैसे? अपने जीवन को शास्त्रसम्मत बनाकर उसे कैसे सुंदर, योगमय, छंदोंमय, धीरता से परिपूर्ण और अविचल बनायें, यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण है। आज जिस प्रकार का परिवेश और जिस प्रकार की कलुषता चारों ओर दिखती है, सनातन धर्म पर, सनातनियों पर और सनातन धर्म के शास्त्रों पर आज जैसा प्रहार हो रहा है, हिंदू देवी-देवताओं को लेकर जैसे व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में आ रहे हैं, इसका एक कारण यह भी है कि हम सनातन धर्म के शास्त्रों के वचनों को जीवन में उतारने का जैसा उद्योग होना चाहिए था, वैसा नहीं कर पा रहे हैं।

श्रीअरविंद कहते हैं कि समस्या का कारण समस्या के अंदर ही होता है। वे कहते हैं कि जब हम कठोर और गंभीर प्रयास के बावजूद असफल होते हैं, तो निश्चित रूप से, हमारी गंभीरता में कहीं न कहीं आंतरिक अकुशलता होती ही है। सनातन धर्म की रक्षा हर सनातनी का प्रथम और प्रधान कर्तव्य है। हमारा जो अधःपतन हुआ है उसका एक बहुत बड़ा कारण है कि हमने मौलिकता से खुद को बहुत दूर कर दिया है। न तो भारत की मौलिक भाषा के साथ और न ही उसके मौलिक ग्रंथों और उनमें व्यक्त विचारों और चिंतन के साथ हमारा कोई संबंध रहा है।
इसके लिए श्रीअरविंद ने हमारे अध्यात्म के तत्व, जिनमें सनातन धर्म की प्रतिष्ठा है, को पुनर्जीवित करने का आह्वान किया है। एक बार उस शक्ति का पुनरुद्धार हो जाए तो फिर उसे अपने जीवन में अपनाकर उसी के आधार पर हमको हर वस्तु में नयापन लाना है। साहित्य, धर्म, कला, संस्कृति, योग और आध्यात्म जो कुछ भी हम करना चाहते हैं, उन सब में नयापन होना चाहिए। परंतु स्थापना वही मौलिक होनी चाहिए। हमारे दैनिक जीवन में जितनी भी समस्याएं आती हैं, चाहे वे व्यक्तिगत हों अथवा सामूहिक, सभी का अंतिम समाधान अध्यात्म शक्ति ही कर सकती है।

अध्यात्म के तत्व को अथवा सनातन धर्म के मर्म को जानने और उन्हें जीवन में उतारने के लिए सनातन धर्म के जो आधारभूत मौलिक ग्रंथ हैं, उनसे हमारा परिचय होना आवश्यक है। उन ग्रंथों के अंतर्गत जो ज्ञान है, ऋषियों की अनुभूतियों अथवा सत्य की उपलब्धियों का जो भंडार है, उससे हमारा परिचय होना चाहिए। वैसे सनातन धर्म में ग्रंथों की कोई कमी नहीं है, किन्तु वेद, उपनिषद, गीता और तंत्र शास्त्र ये चार उसके आधारभूत स्तम्भ हैं। ये चार ग्रंथ नहीं हैं, एक-एक ग्रंथ में अनेक ग्रंथ समाहित हैं। गीता में जो ज्ञान दिया गया है वह वेद और उपनिषद के ज्ञान का निचोड़ है।

श्रीअरविन्द कहते हैं कि गीता के ज्ञान को प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में लाना है। अध्यात्म का प्रतिफलन होना ही गीता का संदेश और उसका सामर्थ्य है। हमारी वर्तमान स्थिति से उदात्त मानव बनकर फिर हम कैसे दिव्य बनें, यह तंत्रशास्त्र की दृष्टि है।
श्रीमाँ ने कहा है कि कोई भी शास्त्र पढ़ने से पहले हमको उसके अध्ययन का प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए। हमें ग्रन्थ का विषय और उसकी हमारे जीवन में उपयोगिता को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। अंत में आता है कि शास्त्रों को पढ़ने का अधिकारी कौन है? श्रीमाँ कहती हैं कि शास्त्रों को अथवा श्रीअरविंद के विचारों को यदि हम पढ़ना चाहें तो मन में शांति और निश्चलता होनी चाहिए। अगर मन अस्थिर है तो श्रीअरविन्द या किसी भी शास्त्र को पढ़ा तो जा सकता है परंतु उसका लाभ कुछ नहीं है। जिसका मन स्थिर है, शुद्ध है और मन के ऊपर कोई आवरण नहीं है, वह अधिकारी है शास्त्र पढ़ने का, श्री अरविन्द को पढ़ने का। यह आवश्यक नहीं कि किसी विशेष परिवार में जन्म लेने से ही वह अधिकारी बनता है। जिसकी चेतना में जितनी शुद्धता है वह उतना समर्थ है शास्त्रों को समझने और उनके वचनों को आत्मसात करके अपने जीवन में उतारने के लिए। जब अनधिकारी के हाथ में शास्त्र आ जाता है तो शास्त्र का पतन होता है: विभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति। गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को ज्ञान प्रदान करने के बाद कहते हैं, जो संपूर्ण ज्ञान मैंने तुम्हें दिया है इस को कभी भी उन व्यक्तियों के सामने प्रकट मत करना जो इस के अधिकारी नहीं हैं अर्थात जो अभक्त हैं, अतपस्वी हैं, अशुश्रूषु हैं, अर्थात् सुनने को नहीं चाहता है, और आसक्त हैं, वे शास्त्रों को जानने के अधिकारी नहीं हैं।

अब प्रश्न है कि हम अपने अंदर उस अधिकारी के गुण कैसे विकसित करें ताकि हम शास्त्रों को आत्मसात कर सकें। अधिकारी बनने के लिए जिज्ञासु बनना आवश्यक है। जिन्हें जानने की प्रबल अभीप्सा है और प्रबल आस्था है, वे ही जिज्ञासु कहे जाएंगे। ब्रह्मसूत्र के आरम्भ में ही बादरायण कहते हैं ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ अर्थात अब हम परम सत्य की जिज्ञासा करें। यह एक आवाहन है, प्रस्थान है, दिशा है, गति भी है। शास्त्रों को पढ़ने के लिए आवश्यक है कि हम श्रद्धावान बने। ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानं’ यह भगवद्गीता का महामंत्र है। श्रद्धा से ही व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करता है। जिसमें जिज्ञासा है, श्रद्धा है और भक्ति है वही ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी है। आदि शंकराचार्य के अनुसार प्रसन्नचित्ताय और यथोचिताय, ये अधिकारी के लक्षण होते हैं। यथोचिताय अर्थात हमारे अंदर से जो आत्मा की पुकार है, उसी के अनुरूप जीवन को संचालित करना, उसी के उपदेश के अनुसार सत्य के पथ पर चलना।
शास्त्र दो प्रकार के हैं:

1. श्रुति शास्त्र अर्थात वैदिक साहित्य। हमारे ऋषि-मुनियों को तपस्या के बल पर जो अनुभूति हुई उसका संग्रह या संहिता वेद हैं। ऋषि के मुख्य लक्षण हैं दृष्टि, श्रुति और विवेक। ऋषियों ने जो कुछ देखा, सुना और सत्य का जिस रूप में साक्षात्कार किया, उसे उन्होंने उसी प्रकार अभिव्यक्त किया जिसे श्रुति शास्त्र कहा गया। प्रारंभ में वेदों के लिए निगम और आगम दोनो शब्द उपयोग किए जाते थे परंतु जब तंत्र शास्त्र की प्रधानता बढ़ी तो आगम शब्द तंत्र शास्त्र के लिए उपयुक्त होने लगा और निगम शब्द वेदों के लिए।

2. नीति शास्त्र अर्थात विधि-विधान के शास्त्र। एक ऋषि ने यदि साक्षात्कार किया तो कैसे किया? हम कैसे मान लें कि उन्होंने यही सुना और यही देखा? तो उसके लिए इस प्रकार के नियम या विधि-विधान दिए गए हैं कि यदि हम उनके अनुसार ध्यान करेंगे, श्रवण करेंगे, मनन करेंगे और चिंतन करेंगे तो हमारे भीतर भी वही उपलब्धि हो सकती है। हमारी चेतना में भी वही वाणी गुंजित हो सकती है। जिसको बाद में उपासना और कर्मकांड के रूप में उपयोग किया गया है।

3. धर्मशास्त्र जिसमें एक विशेष काल, धर्म और पात्र के आधार पर जो उस समय घटित होता था और जो समाज के लिए अच्छा होता था, उसे अभिव्यक्ति दी गई है।
श्रीअरविन्द कहते हैं कि शास्त्रों में हमें दो प्रकार के सत्य का दर्शन होता है अर्थात सांसारिक सत्य (प्रेय) तथा सार्वभौमिक सत्य (श्रेय)। इसीलिए हमें विवेक बुद्धि को विकसित करके श्रेय का ही वरण करना चाहिए।

वेद के संबंध में श्रीअरविंद कहते हैं, सनातन धर्म की प्रतिष्ठा वेद ही है। वेद के वचन को ही हम सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। वे कहते हैं कि संसार में मैं जो करने के लिए आया हूं, उसे अच्छी तरह से संपादित कर पाऊं, इसके लिए वेद मेरा मार्गदर्शक बने। सत्य को जानकर उसके अनुरूप आचरण कर सकूं, इसके लिए वेद का ज्ञान जरूरी है। श्रीअरविंद का मानना है कि दिव्यता वेद में छुपी हुई है। वेदों के ज्ञान को लोगों के सामने लाना, उसे पढ़कर अपने जीवन में उपयोग करना, उसी को आधार मानकर एक सफल जीवन जीना हमारे जन्म का लक्ष्य होना चाहिए। यही हमारा स्वधर्म है।

वेदों को हम श्रुति के रूप में जानते हैं, निगम के रूप में जानते हैं, आम्नाय के रूप में जानते हैं, मैत्री के रूप में जानते हैं। वेदों का ज्ञान अपौरुषेय है क्योंकि जिन लोगों को इस ज्ञान का दर्शन हुआ ये ऋषि लोग साधारण चेतना वाले पुरुष नहीं होते थे। जो उच्च चेतना में होते हैं वे अपौरुषेय होते हैं। उन्हें सत्य का प्रत्यक्ष दर्शन होता है।

वेद चार हैं अर्थात ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेद। प्रत्येक वेद का ब्राह्मण ग्रंथ अर्थात उनका व्याख्यान ग्रंथ होता है जो वेदों के प्रायोगिक रूप को दिखाते हैं। ब्राह्मण ग्रंथ वेद की प्रथम व्याख्या हैं। इन ग्रंथों का ब्राह्मण जाति से कोई संबंध नहीं है। इन ग्रंथों में यज्ञ से संबंधित विधि-विधान बताए गए हैं। प्रत्येक वेद से सम्बंधित आरण्यक ग्रंथ और उपनिषद होते हैं। वेद का ज्ञानकांड उपनिषद में है। परम सत्य का व्यापक वर्णन ब्रह्म के रूप में उपनिषदों में मिलता है जिसे ब्रह्म विद्या कहा जाता है। ‘अयम् आत्मा ब्रह्म’ (यह आत्मा ब्रह्म है), ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ), ‘तत्त्वमसि’ (वह ब्रह्म तुम्ही हो), ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ (प्रज्ञान ही ब्रह्म है) इसका जो ज्ञान कराता है वही उपनिषद है। इनके अतिरिक्त छह वेदांग भी होते हैं अर्थात शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छंद और निरुक्त। वेदांगों को जाने बिना हम वेद को नहीं जान सकते हैं, पर किसके पास इतना समय है इन सब को पढ़ने का और जानने का। इसलिए इन्हें उपलब्ध करने और आत्मसात करने के लिए हम उन महापुरुषों का सहारा लेते हैं जिनको इनका ज्ञान प्राप्त हो चुका है और जो संक्षेप में हमें इनका बोध करा सकते हैं। इस दृष्टि से श्रीअरविन्द के तीन ग्रंथ उपयोगी हैं:
1. The Secret of the Vedas
2. Hymns of the Mystic Fire
3. Vedic and Philological Studies
‘The Secret of the Vedas’ में श्रीअरविंद ने वेदों के रहस्य का उद्घाटन किया है और संक्षेप में वेद के बारे में जो कहा है उतना ही हम जान लें तो वेद के अंदर प्रवेश करना हमारे लिए आसान हो जायेगा।

श्रीअरविंद वैदिक ऋषियों की चार अनुभूतियों के बारे में बताते हैं:
1. जिस जगत में हम रहते हैं, जिस प्रकाश से हम प्रकाशित होते हैं, जिस सत्य को हम जानते हैं, इस जगह में, इस प्रकाश में, इस चेतन में हम सीमित होकर रह जायेंगे तो उस उच्चतर जगत को, उस उच्चतर प्रकाश को, उस उच्चतर चेतना को हम जान नहीं पायेंगे। यह सीमित जगत है। हमारा लक्ष्य है इस सीमितता से मुक्त होकर असीमित को प्राप्त करना, अनंत को प्राप्त करना, असीम अनंत व्यापक चेतना में जीना।

2. हम उस परम सत्य को, उस चेतना को और उस प्रकाश को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इसके लिए हर व्यक्ति को अपने स्वभाव और स्वधर्म के अनुरूप अपना शास्त्र स्वयं चुनना होगा। श्रीअरविंद के वैदिक योग में कहा है सब को अपने स्वभाव के अनुरूप जीवन जीना है, अपने को जानना है और अपनी प्रगति के लिए अपना स्वयं का मार्ग ढूँढना है।

3. हमारा जीवन जो सीमित जगत में हैं, उसमें हमेशा-हमेशा युद्ध चलता रहता है। वह युद्ध प्रकाश और अंधकार के बीच, सत्य और असत्य के बीच, वास्तव और अवास्तव के बीच, मृत्यु और जीवन के बीच है। इस संग्राम में असत्य के ऊपर, मिथ्या के ऊपर, अंधकार के ऊपर, मृत्यु के ऊपर और आसुरी शक्तियों के ऊपर विजय प्राप्त करनी है। ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय’ यह मूल मंत्र है सनातन धर्म का। इतना ही कोई जान ले और उसके अनुकूल जीवन को व्यवस्थित कर ले तो उसे संपूर्ण वेद का ज्ञान अपने आप हो जायेगा।

4. ‘एकम् सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात एक सत्य विभिन्न रूप में अभिव्यक्त होता है। जिस रूप से वह अभिव्यक्त होता है वह भी सत्य है। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत् सत्यम्’ यह मानकर आगे बढ़ना है।

ये चारों उपलब्धियां वेदों का निष्कर्ष है। अनेक देवी-देवताओं का आह्वान इसीलिए किया जाता है कि ये देवी-देवता हमारी चेतना में विकसित हों। उनके गुण हमारे अंदर विकसित हों। अग्नि दिव्य संकल्प-शक्ति का प्रतीक है, इंद्र शुद्ध मन के प्रतीक हैं और वायु प्राणशक्ति की प्रतीक है।

उपनिषद में जो योग हमें देखने को मिलता है आगे चलकर इस प्रकार के योग को हम तंत्र शास्त्र में देखते हैं। श्रीअरविंद के योग का आधार भी हमें तंत्र शास्त्र में मिलेगा: “सम्पूर्ण जीवन ही योग है” और तंत्र भी यही कहता है। तंत्र शास्त्र में जीवन के किसी भी भाग को अस्वीकार नहीं किया। जीवन के हर तत्व को रूपांतरित करना तंत्र शास्त्र का लक्ष्य है, ये ही चेतना का लक्ष्य है। मानव अपनी साधारण चेतना में पशु जैसा है और सीमित है। जैसे पशुओं को बांधकर रखा जाता है, बंधन में रखा रहता है, वैसे ही मनुष्य साधरण चेतना में बंधन में रहता है, सीमितता में रहता है। इससे पाशविक चेतना से उठ कर हमें मानव चेतना में जाना है और मानव चेतना से उठकर हमें दिव्य चेतना में जाना है। दिव्य चेतना में रूपांतरित करके, हमें अपने आपको दिव्य चेतना बनकर, इस जगत में हमारे जीवन के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना है। इस संसार को छोड़ना नहीं है।

वेदों में, उपनिषदों में, तंत्र शास्त्र में जो निष्कर्ष हमें मिलता है उसका और भी सरलीकरण एवं व्यवहारिक रूप गीता में दिया गया है, जो स्वयं एक उपनिषद है, ब्रह्म विद्या है और योग शास्त्र भी है। हम गीता के ही अनुकूल जीएं और अपने जीवन को साधारण चेतना से दिव्य चेतना में रूपांतरित करें, यही गीता का संदेश है:

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु॥9–34।।

श्री कृष्ण कहते हैं तुम्हारे मन में जो भी विचार आयेगा, वह विचार मेरा विचार होगा यदि तुम मेरे मन वाले बन जाओ। तुम्हारे ह्रदय का जो भी भाव है, उसे मेरे सामने खोल कर रख दो तब तुम्हारे प्राणों का जो संचार है, वह मेरा संचार होगा। वह प्राणी मैं हूं, तुम्हारे हर प्रकार के कर्म मेरे ही कर्म होंगे, उन्हें मुझे समर्पित करके करना। जैसे, तुम खा रहे हो तो मैं तुम्हारे साथ खा रहा हूं, तुम सो रहे हो तो मैं तुम्हारे साथ सो रहा हूं, तुम चल रहे हो तो मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूं। खुद को इस प्रकार नमनीय बना दो। खुद को इस प्रकार खोल कर रख दो कि तुम्हारी चेतना में कोई आग्रह नहीं है, कोई संकोच नहीं है, कोई संशय नहीं है। उसमें इतनी स्वच्छता है, इतनी पारदर्शिता है कि मैं जिस प्रकार चाहूँ तुम्हें बना सकूँ। तुम्हें अपने अनुरूप बना सकूं। यही गीता, वेद और उपनिषद का निष्कर्ष है। इस प्रकार के ज्ञान को एक व्यवस्थित रूप में ऋषि-मुनियों ने हमें दिया है। यह व्यवस्थित रूप अनेक शास्त्रों के रूप में उपलब्ध है।

इन शास्त्रों को जानने के लिए आवश्यकता है अधिकारी बनने की, तो हम अधिकारी बनें। तभी हम शास्त्रों के भीतर प्रवेश कर सकते हैं और शास्त्रों के अनुकूल जीवन जी सकते हैं। श्रीअरविंद कहते हैं वास्तविक शास्त्र हमारे अंदर है और उसी में प्रतिष्ठित होना ही जीवन की सार्थकता है।

[यह आलेख परमेश्वरी देवी जानकीवल्लभ दानी चेरिटेबल ट्रस्ट के सत्संग स्मृतिका नामक पत्रिका में प्रकाशित है।]

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Written by Sampadananda Mishra

Author, speaker and researcher on subjects related to Sanskrit, Indian Culture, Spirituality, Yoga and Education. SahityaAkademi and President of India Awardee.

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